मैंने सोचा था, मुझे तुम पसंद हो,
तुम, सिर्फ तुम,
तुम्हारी सारी अच्छाइयों और बुराईयों के साथ,
और मैं तुम्हे,
बिल्कुल उसी तरह,
जिस तरह चाहता हूँ मैं तुम्हें।
मैंने सोचा था,
ये धन-दौलत की दीवार,
ये रूपये-पैसे-जायदाद,
कभी हमें जुदा ना कर पाएँगे।
मैंने सोचा था,
ये जाति-धर्म और समाज की खोखली बंदिशे,
हमें कभी नहीं बाँध पाएँगी।
मैंने सोचा था,
ये रूप-रंग-बाहरी आडम्बर,
हमें कभी छू भी ना पाएँगे।
मैंने सोचा था,
रिश्तों में सच्चाई काफ़ी है,
प्यार पाने और बांटने के लिए।
मैंने सोचा था,
हमारा प्यार टिका है,
सच्चाई, ईमानदारी और सादगी के धरातल पर।
मैंने सोचा था,
सिर्फ दुनिया लगी पड़ी है,
खड़े करने में,
धन-दौलत के पहाड़।
मैंने सोचा था,
सिर्फ दुनिया भाग रही है,
पीछे रूप-रंग-बाहरी आडम्बर के।
और हम-तुम बिलकुल अलग हैं,
उन दो खिल रहे सफ़ेद कमल-पुष्पों की तरह।
पर जाने क्यों,
जाने क्यों, दुनियादारी का रोग,
तुम्हे कैसे कब लग गया।
पर जाने क्यों,
जाने क्यों, भौतिकतावाद का नशा,
तुम पे कैसे चढ़ गया।
शायद तुमने दुनिया में,
दुनिया वालों की तरह रहना सीख लिया,
और मैं अकेला का,अकेला ही रह गया।
अब या तो तुम आगे निकल गयी,
या जाने मैं ही पीछे रह गया।
शायद तुम एक दिवा-स्वप्न हो,
या हो एक झूठी हक़ीक़त।
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