मुलाकात क्या ही हुई, बस निगाहे चार बर-बस अकस्मात हो गईं।
चाहा था फिर भी आँखे मोड़ लेना उसने भी , मैंने भी,
पर बेरहम दिल के आगे, मेरी ये नादाँ कोशिश भी नाकाम हो गयी।
ज़ख्म जो गहरे थे अंदर से, एक सूखे परत से ढँके हुए,
सामने आते ही उसके, सारे वो फिर से हरे नासूर हो गए।
एक दर्द सा उठा दिल में, पुरे बदन को बिंधता-सा,
और दिमाग की नसे मानो, पुरानी यादों के बोझ से जार-बेज़ार हो गए।
एक हिचक-सी जगी दिल में, लौटूँ, मूड़ूँ पीछे, जैसे देखा ही नहीं,
पर मेरे पाँव भी जैसे जमीं में जड़ से बेज़ान हो गए।
ना मूड़ने की ताकत, ना बोलने का हौसला,
जैसे मेरे प्राण भी शरीर के आर-पार हो गए।
मैं तो था नादाँ आशिक़, दुनियादारी कभी सीखी नहीं,
झूठी मुस्कराहट होठों पे लाने की कोशिश भी नाकाम हो गयी।
हँस कर किया एहसान उसने, दुनिया वालों की तरह,
पूछ कर मेरा हाल-चाल, खंजर दिल के पार कर दी।
बहुत चाहा, कोशिश भी की, बोलूं मैं हूँ अपनी मौजों की धून में, हँसता-खेलता, बहुत अच्छा,
पर इन बेईमान आँखों ने मेरी एक ना मानी, और दिल के सारे राज ही बयां कर दीं।
और लफ्जो ने होठों पे आने से इंकार कर दीं।
दिखने में तो ठीक हूँ, पर दिल के ज़ख्म बहुत गहरे हैं,
दिखने में तो ठीक हूँ, पर दिल के ज़ख्म अभी भी हरें हैं।
चाहा ये हीं बोल दूँ, पर ये भी मैं ना कह सका,
बस किसी तरह मुस्कुरा कर, मैं वहाँ से मूड़ गया,
और वो मोड़ जहाँ वो फिर मिली,
उसे वहीँ पर छोड़ गया।
- V.P."नादान"
दिंनाक-१८.०९.२०१४
Beautifully written, soaked in emotions. Heart touching!
ReplyDeleteThank u very much purba ji for ur kind appreciation....!
Deletewell written..!
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