lost soul 2

Monday 22 September 2014

"सच्चा दान वही है जिसका प्रचार ना किया जाए"


शिव ने जग के तारण हेतू, विषघट पीया, वो ही सच्चा दान था,
हरिश्चन्द्र ने पत्नी-पुत्र बेच, ऋषि-ऋण चुकाया, वो ही सच्चा दान था। 

माता करती निःस्वार्थ सेवा संतान की, वो भी तो सच दान ही है,
गुरू सिखलाता क्या है अच्छा-बूरा,  वो भी तो सच दान ही है। 

प्रकृति सिखलाती नियम से रहना, क्या वो भी कभी कुछ मांगती है?
धरती देती अपने गर्भ से उपजा सोना, क्या वो भी कभी जतलाती है?

हे मानव फिर क्यों तेरा मन दान की गलत परिभाषाएं बनाता है ??


चंद धातु टुकड़े बाँटकर, मन तेरा चाहे वाहवाही लूटना,
मंदिर में स्वर्ण-छत्र चढ़ा, सोचते हो मर कर स्वर्ग जाना,

रोते बच्चे को  छोड़, भगवन को भोग लगाते हो,
प्यासे को  पानी दिया नहीं , शिवलिंग  पे दूग्ध-धार बहाते हो। 
 मन  से चाहा ना चाहा भला किसी का, खुद के ही गुण को गाते हो।

कहते हो इनको पुण्य अगर, ये पुण्य  नहीं कुछ और होगा,
कहते हो इनको दान अगर, ये दान नहीं व्यापार होगा। 
 

-V. P. "नादान"
  

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